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जाने हूल क्रांति दिवस के संबंध में

 

न्यूज़ लहर संवाददाता

हूल संथाली भाषा का शब्‍द है, जिसका मतलब होता है विद्रोह। 30 जून, 1855 को झारखंड के आदिवासियों ने अंग्रेजी हुकूमत के अत्‍याचार के खिलाफ पहली बार विद्रोह का बिगुल फूंका। इस दिन 400 गांवों के 50000 लोगों ने साहिबगंज के भोगनाडीह गांव पहुंचकर अंग्रेजों से आमने-सामने की जंग का एलान कर दिया।

30 जून को हूल दिवस है, यानी यह दिन अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ 1855-56 में सिदो-कान्हू के नेतृत्व में जल, जंगल, जमीन और आदिवासी अस्मिता के सवाल पर संतालों के विद्रोह या हूल दिवस के रूप में जाना जाता है, जिसकी नींव तिलका मांझी ने 1771 में डाली थी।

आदिवासियों द्वारा ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ हुए इन तमाम विद्रोहों पर संताली त्रैमासिक पत्रिका ‘जिवेत आड़ाङ’ के संयोजक व सह संपादक एवं रांची में कार्यरत रेलवे के अभियंता पंकज किस्कू कहते हैं कि संताल हूल विश्व इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक है। अब तक इस घटना पर विभिन्न विचार विमर्श किया जा चुका है, इस पर देश विदेश के विद्वानों ने अपनी राय जाहिर की है, बेशकीमती पुस्तकें प्रकाशित की हैं। इन सभी विचारों शोधों का निष्कर्ष यही है कि संतालों (उस क्षेत्र में रहने वाले तमाम आदिवासियों को लेकर) पर होने वाले अत्याचार की पराकाष्ठा का परिणाम यह विद्रोह था।

इन तीनों कारकों ने आदिवासियों के विद्रोही बना दिया, जबकि आदिवासी बड़े शांतप्रिय प्रकृति के थे, जो आज भी हैं। बताते चलें कि संताल विद्रोह ब्रिटिश हुकूमत और महाजनी-जमींदारी शोषण के खिलाफ अकेला विद्रोह नहीं था। इसके पहले और इसके बाद भी संतालों ने विद्रोह किए। झारखंड क्षेत्र में अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ बगावत की शुरूआत तत्कालीन जंगल महल से रघुनाथ महतो के नेतृत्व में 1769 का ‘चुहाड़ विद्रोह’, 1771 में तिलका मांझी का ‘हूल’, 1820-21 का पोटो हो के नेतृत्व में ‘हो विद्रोह’, 1831-32 में बुधु भगत, जोआ भगत और मदारा महतो के नेतृत्व में ‘कोल विद्रोह’, 1855-56 में सिदो-कान्हू के नेतृत्व में ‘संताल विद्रोह’ और 1895 में बिरसा मुंडा के नेतृत्व में हुए ‘उलगुलान’ ने अंग्रजों को ‘नाको चने चबवा’ दिये थे।

संताल हूल की लपटें हजारीबाग भी पहुंची। लुबिया मांझी और बैरू मांझी के नेतृत्व में भीषण विद्रोह हुआ। और हूल विद्रोह में सिर्फ आदिवासी ही नहीं सभी जाति के लोग शामिल हुए। साहेबगंज के अंसारी मोमिन मुस्लिम इस विद्रोह को इतना प्रबल दिया था कि शहर से गांव तक इसके जद में आ गए। अप्रैल 1856 में संताल विद्रोही हजारीबाग जेल में घुस गये और आग लगा दी। इस विद्रोह को दबाने के लिए जहां ब्रिटिश हुकूमत की क्रूरता का शिकार होकर बड़ी संख्या में संताल विद्रोहियों ने शहादत दी; आइये हम सब मिलकर इन शहीदों को याद करें और उसे नमन करें।
सौजन्य: इंटरनेट

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