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हो समाज में लुप्त हो रही है खजूर चटाई बीनने की परंपरा* *हो समाज में है खजूर चटाई की अपनी सामाजिक तथा सांस्कृतिक महत्व*

 

न्यूज़ लहर संवाददाता

झारखंड:चाईबासा में आदिवासी हो समाज में सदियों से चली आ रही खजूर की चटाई बीनने की परंपरा अब लुप्त होने के कगार पर पहुंच गयी है। इनकी जगह अब बाजार की रेडीमेड चटाई लेने लगी है। इससे हो समुदाय के सामाजिक तथा वैवाहिक कार्यों में कठिनाई होने लगी है। क्योंकि हो समाज में सगाई हो, शादी हो या फिर जनजातीय पर्व त्योहार सारे अवसरों पर इस चटाई का अपना महत्व है। विवाह संबंधी सारे द्विपक्षीय वार्तालाप (दूल्हा तथा दुल्हन पक्ष) भी इस चटाई पर बैठकर संपन्न किये जाने की परंपरा है। इसके लिये कुरसी का प्रयोग पर सामाजिक प्रतिबंध है। यह परंपरा हो समाज में बहुत पुरानी है। ऐसे में खजूर की चटाई की अनुपलब्धता अब परेशानियां खड़ी कर रहा है। ऐसे में मंगलाहाट में बिकनेवाली चटाई राहत दे रही है।

पहले गांव-देहातों में बुजुर्ग महिलाओं द्वारा इस चटाई को बीनने की परंपरा रही है। परंपरा के अनुसार, ग्रामीण महिलाएं गरमी के मौसम में पेड़ों की छांव में खजूर चटाई बीनती थीं। यह गांव की परंपरा है। लेकिन आजकल खजूर पत्ते की अनुपलब्धता तथा बाजारू चटाई की उपलब्धता ने इस परंपरा को क्षीण कर दिया है। अब लोग खजूर की चटाई की जगह बाजारू रेडीमेड चटाई लेने लगे हैं। हो समाज के बुद्धिजीवी कहते हैं कि घर में चटाई बीनने की यह परंपरा लुप्त नहीं होनी चाहिये। ताकि हमें शादी ब्याह में परेशानी ना हो। वैसे भी पारंपरिक हो समाज के विवाह में बाजारू चटाई का उपयोग सर्वथा वर्जित है। मान्यता सिर्फ खजूर चटाई की ही है,

जो सदियों से हो समाज में प्रचलित है। ज्ञात हो कि आदिवासी हो समाज में वैवाहिक रस्मों की अदायगी में खजूर की चटाई का उपयोग पारंपरिक है। यह हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग भी है। इसलिये इस चटाई के प्रचलन को बनाये रखने की आवश्यकता है। अन्यथा हमारी संस्कृति एक दिन अतीत के किस्से कहानियों में ही सुनने को मिलेगा।

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