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मां पाउड़ी मंदिर: आस्था, इतिहास और हठभक्ति का संगम — चैत्र मेले में दहकते अंगारों पर नंगे पांव चलकर जताते हैं श्रद्धालु अपनी भक्ति

 

न्यूज़ लहर संवाददाता

झारखंड ।पश्चिमी सिंहभूम जिले के चक्रधरपुर स्थित मां पाउड़ी मंदिर न केवल एक धार्मिक स्थल है, बल्कि आस्था, इतिहास और सांस्कृतिक विरासत का जीवंत प्रतीक भी है। संजय नदी के किनारे बसी इस पवित्र भूमि पर सदियों से श्रद्धालुओं की गहरी आस्था रही है। यहां हर वर्ष चैत्र माह में लगने वाले मेले में हजारों की संख्या में भक्त उमड़ते हैं और दहकते अंगारों पर नंगे पांव चलकर अपनी हठभक्ति का परिचय देते हैं।

चक्रधरपुर क्षेत्र की पुरानी बस्ती में स्थित मां पाउड़ी मंदिर को लेकर स्थानीय जनमानस की आस्था बेहद मजबूत रही है। यह मंदिर न केवल क्षेत्र के लोगों की श्रद्धा का केंद्र है, बल्कि दूर-दराज से आने वाले भक्तों के लिए भी आस्था का प्रमुख स्थल है। संजय नदी के किनारे स्थित इस मंदिर में प्रत्येक गुरुवार विशेष पूजा का आयोजन होता है और महीने के अंतिम गुरुवार को खिचड़ी भोग का वितरण किया जाता है।

मां पाउड़ी को सिंहभूम के राजाओं की कुलदेवी माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि मां के आशीर्वाद से भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। यही कारण है कि यह मंदिर चक्रधरपुर ही नहीं, पूरे कोल्हान क्षेत्र में धार्मिक महत्व रखता है।

इतिहास से जुड़ी कहानियां और मान्यताएं:

बताया जाता है कि वर्ष 1260 में सिंहभूम के राजा और भुइयां समुदाय द्वारा इस क्षेत्र में राजघराने की स्थापना के साथ ही मां पाउड़ी की पूजा-अर्चना शुरू हुई थी। सिंहभूम के तत्कालीन राजा अच्युत सिंह ने शक्ति की अधिष्ठात्री देवी के रूप में मां पाउड़ी की प्रतिमा पोड़ाहाट में स्थापित की थी, जहां बांसकाटा डैम के समीप पूजा होती थी।

 

1802 ईस्वी में एक रोचक प्रसंग सामने आता है जब सरायकेला राजघराने के कुंवर विक्रम सिंह ने पोड़ाहाट से मां पाउड़ी की इष्ट देवी की प्रतिमा को चुराकर ले जाने की कोशिश की। लेकिन चक्रधरपुर के बलियाघाट पहुंचते ही प्रतिमा का आसन पाट-पीढ़ा गिर गया। इस घटना को देवी की इच्छा का संकेत मानकर तत्कालीन राजा ने वहीं मंदिर निर्माण करवाया और उसे राजबाड़ी के समीप स्थापित कर दिया।

 

मां पाउड़ी मंदिर का निर्माण और विकास:

वर्तमान मंदिर की स्थापना वर्ष 1971 में हुई। इससे पहले यह स्थान झाड़ियों और पेड़ों से घिरा एक वीरान इलाका था। 1969 में चक्रधरपुर के समाजसेवी मन्मथ कुमार सिंह को मां पाउड़ी ने स्वप्न में दर्शन दिए और मंदिर निर्माण का आदेश दिया। दो वर्षों की अथक मेहनत और स्थानीय लोगों के सहयोग से 1971 में मंदिर का निर्माण संभव हो पाया। उस समय तक शिला रूपी प्रतीक की ही पूजा होती थी।

 

1973 में कंसरा के जंगलों से कुईतुका खदान से विशेष पत्थर लाकर मां पाउड़ी की प्रतिमा बनवाई गई, जिसे मूर्तिकार कन्हैया साहू ने तराशा। जनश्रुति है कि मां पाउड़ी, केरा व कंसरा मां की बहन हैं।

 

चैत्र मेला और दहकते अंगारों पर आस्था की परीक्षा:

मां पाउड़ी मंदिर में 1971 से चैत्र माह में भव्य मेले का आयोजन होता है। इस मेले की खास बात यह है कि श्रद्धालु नंगे पांव दहकते अंगारों पर चलकर अपनी हठभक्ति का प्रदर्शन करते हैं। यह परंपरा भक्तों की आस्था, आत्मबल और निष्ठा का जीवंत उदाहरण मानी जाती है।

 

मेले के दौरान मंदिर प्रांगण में श्रद्धालुओं की भारी भीड़ उमड़ती है। घट यात्रा, पूजन, भजन-कीर्तन और धार्मिक अनुष्ठानों के माध्यम से संपूर्ण वातावरण भक्ति में डूबा होता है।

 

आज भी जीवंत है परंपरा:

मां पाउड़ी मंदिर आज भी लोगों की आस्था का प्रतीक बना हुआ है। प्रत्येक गुरुवार को यहां श्रद्धालु बड़ी संख्या में दर्शन के लिए आते हैं। मंदिर में प्रसाद, भोग और अनुष्ठानों के साथ-साथ जनकल्याण से जुड़े कार्यों का भी आयोजन होता है।

 

इस प्रकार मां पाउड़ी मंदिर केवल एक धार्मिक स्थल नहीं, बल्कि कोल्हान की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत का अभिन्न अंग बन चुका है।

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