चाकुलिया के दिशोम जाहेर गढ़ में चम्पाई सोरेन ने माथा टेक कर दोहराया संकल्प: “आदिवासी अस्मिता और अस्तित्व की लड़ाई जारी रहेगी”

न्यूज़ लहर संवाददाता
झारखंड। पूर्वी सिंहभूम जिला में पूर्व मुख्यमंत्री और झारखंड मुक्ति मोर्चा के वरिष्ठ नेता चम्पाई सोरेन ने रविवार को चाकुलिया प्रखंड अंतर्गत स्थित ऐतिहासिक दिशोम जाहेर गढ़ में माथा टेककर आदिवासी अस्मिता और अस्तित्व की लड़ाई को और मजबूती से आगे बढ़ाने का संकल्प दोहराया। उन्होंने पारंपरिक रीति-रिवाजों के साथ मरांग बुरू की पूजा की और ‘हिरला मरांग बुरू! जोहार जाहेर आयो!’ के जयघोष के साथ अपने संबोधन की शुरुआत की।
चम्पाई सोरेन ने अपने उद्बोधन में कहा कि आदिवासी समाज प्रकृति पूजक है, जो सदियों से पेड़, पहाड़, जल, जंगल और ज़मीन को देवता मानकर उनकी पूजा करता आया है। यही परंपरा आदिवासी संस्कृति की आत्मा है। उन्होंने कहा कि आज कुछ लोग आदिवासी नाम और पहचान का लाभ तो लेना चाहते हैं, लेकिन वे हमारी मूल परंपराओं, रीति-रिवाजों और धर्म से विमुख हो चुके हैं।
उन्होंने तीखे स्वर में कहा, “जो लोग अब प्रकृति पूजक परंपरा से हट चुके हैं, उन्हें आदिवासी समाज के लिए संविधान द्वारा प्रदत्त आरक्षण और अन्य अधिकारों का लाभ लेने का कोई नैतिक या वैधानिक अधिकार नहीं होना चाहिए। इससे हमारे समाज के वास्तविक और पारंपरिक लोगों का हक मारा जाता है।”
पूर्व मुख्यमंत्री ने आदिवासी युवाओं और समाज के बुद्धिजीवियों से आह्वान किया कि वे अपनी जड़ों को न भूलें और आने वाली पीढ़ी को भी अपनी संस्कृति, भाषा और परंपराओं से जोड़कर रखें। उन्होंने यह भी कहा कि झारखंड की आत्मा तभी जीवित रह सकती है जब आदिवासी समाज जागरूक रहेगा और अपने अधिकारों के लिए संगठित होकर आवाज उठाता रहेगा।
इस मौके पर बड़ी संख्या में आदिवासी पुरुष, महिलाएं और युवाओं की उपस्थिति रही। सभी ने पारंपरिक पोशाकों में भाग लिया और सामूहिक रूप से मरांग बुरू की पूजा की। कार्यक्रम में स्थानीय आदिवासी नेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने भी भाग लिया और अपने विचार रखे।
दिशोम जाहेर गढ़ जैसे पवित्र स्थल पर चम्पाई सोरेन की उपस्थिति ने न केवल धार्मिक आस्था को बल दिया, बल्कि समाज को एकजुट करने का संदेश भी दिया। उन्होंने स्पष्ट किया कि झारखंड में आदिवासी अस्मिता की लड़ाई केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक अस्तित्व की लड़ाई है।
हिरला मरांग बुरू! जोहार जाहेर आयो!!
उनके इन शब्दों के साथ कार्यक्रम का समापन हुआ, और उपस्थित जनसमूह ने भी एक स्वर में यह नारा लगाया, जो आदिवासी एकता और संघर्ष का प्रतीक बन चुका है।