आदिवासी या अल्पसंख्यक?—धर्मांतरण को लेकर झामुमो की नीति पर उठे सवाल
न्यूज़ लहर संवाददाता
चाईबासा: आदिवासी समुदाय और ईसाई धर्म के बीच की पहचान को लेकर झारखंड में एक बार फिर विवाद गहराता दिख रहा है। झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) की पश्चिमी सिंहभूम जिला समिति द्वारा हाल ही में अल्पसंख्यक मोर्चा का विस्तार करने के बाद आदिवासी संगठनों ने पार्टी की नीतियों पर तीखा सवाल उठाया है।
अखिल भारतीय आदिवासी,अनुसूचित जाति जनजाति परिसंघ, पश्चिमी सिंहभूम के सचिव बिर सिंह बिरुली ने झामुमो पर “दोहरी नीति” अपनाने का आरोप लगाया है। उन्होंने कहा कि नवगठित अल्पसंख्यक मोर्चा समिति में जिन रघुनाथ तियु और निर्दोष बोदरा को सचिव और कोषाध्यक्ष बनाया गया है, वे पहले आदिवासी (हो समुदाय) और सरना धर्म के अनुयायी थे, लेकिन अब ईसाई धर्म अपना चुके हैं। ऐसे में वे तकनीकी रूप से अनुसूचित जनजाति में नहीं आते, बल्कि अल्पसंख्यक की श्रेणी में शामिल हो गए हैं।
बिरुली ने झामुमो से सवाल किया कि यदि धर्मांतरित व्यक्तियों को अल्पसंख्यक मानकर समिति में जगह दी जा रही है, तो फिर चाईबासा विधायक निरल पुरती को भी अल्पसंख्यक घोषित क्यों नहीं किया गया? उन्होंने कहा कि निरल पुरती भी ईसाई धर्म अपना चुके हैं और बावजूद इसके अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित सीट से चार बार चुनाव जीत चुके हैं।
उन्होंने इसे “आदिवासियों के हक का हनन” करार देते हुए विधायक से नैतिकता के आधार पर इस्तीफा देने की मांग की। साथ ही झामुमो नेतृत्व से आग्रह किया कि पार्टी में मौजूद अन्य धर्मांतरित नेताओं की भी समीक्षा की जाए और यदि वे ईसाई धर्म अपना चुके हैं तो उन्हें अनुसूचित जनजाति के लाभ से वंचित किया जाए।
बिरुली का कहना है कि संविधान और सामाजिक न्याय की भावना के अनुसार एक व्यक्ति एक ही पहचान से लाभ नहीं उठा सकता। यदि वह ईसाई धर्म अपनाता है, तो अनुसूचित जनजाति की आरक्षण व्यवस्था का लाभ लेना अनैतिक और अवैधानिक दोनों है।
गौरतलब है कि यह विवाद झामुमो के पत्रांक 22-2025/JMM/West Singhbhum, दिनांक 07/06/2025 के आलोक में गठित अल्पसंख्यक मोर्चा समिति के बाद सामने आया, जिसने आदिवासी संगठनों में असंतोष की लहर पैदा कर दी है।
यह मामला झारखंड की राजनीति में धर्म, पहचान और आरक्षण की जटिल परतों को एक बार फिर सतह पर ले आया है।