तामसिक और राजसिक भक्त को भगवान नहीं चाहिए उनकी मनोकामना पूरी होनी चाहिए रागात्मिका भाव के भक्त भक्ति के द्वारा परम पुरुष में लीन हो जाता है उसके अलावा कुछ नहीं चाहता

जमशेदपुर:
आनंद मार्ग प्रचारक संघ धर्म चक्र यूनिट सोनारी में लोगों को आध्यात्मिक स्टडी सर्किल में सुनील आनंद ने कहा कि परम पुरुष के प्रति जो प्रेम है उसे ही भक्ति कहते हैं ।भक्ति मिल गई तो सब कुछ मिल गया। जीवन में जितने भी अनुभूतियां है उसमें भक्ति की अनुभूति सर्वश्रेष्ठ है। आज समाज में भक्ति को लेकर बहुत ही अलग-अलग तरह की धारणाएं हैं सब भक्त एक प्रकार के नहीं हो सकते। भक्तों का भी अलग-अलग स्तर है।अभी तक चार तरह की भक्ति मानी गई है।तामसिक भक्ति,राजसिक भक्ति,रागानुगा भक्ति एवं रागात्मिका भक्ति।तामसिक भक्ति:
इस प्रकार की भक्ति में, व्यक्ति अज्ञानता, अंधविश्वास और नकारात्मक भावनाओं से प्रेरित होकर भक्ति करता है। उदाहरण के लिए, कुछ लोग शक्तियों को प्रसन्न करने के लिए जीव की बली भी देते हैं तामसिक भक्ति करते हैं। इस भक्ति में दूसरे की हानि और अपना लाभ का भाव रहता है और बहुत लोग दूसरे की मरने की कामना भी इस भक्ति में करते हैं।यह भक्ति निम्न स्तर की मानी जाती है और इससे आध्यात्मिक प्रगति में बाधा आती है। इस भक्ति में परम पुरुष उद्देश्य नहीं रहते बल्कि अपनी कामना उद्देश्य होती है।राजसिक भक्ति: इस प्रकार की भक्ति में, व्यक्ति सांसारिक सुखों, इच्छाओं और भौतिक लाभों की प्राप्ति के लिए भक्ति करता है। उदाहरण के लिए, कुछ लोग धन, संपत्ति, स्वास्थ्य या प्रसिद्धि प्राप्त करने के लिए भक्ति करते हैं। यह भक्ति तामसिक भक्ति से बेहतर है, लेकिन यह पूर्ण संतुष्टि या आध्यात्मिक मुक्ति प्रदान नहीं करती है। इस भक्ति में भी भाव है की परम पुरुष मेरी बस कामना पूरी हो जाए परम पुरुष विषय नहीं विषय अपनी मानोकामना है रागानुगा भक्ति: यह भक्ति एक उच्च स्तर की भक्ति है, जिसमें भक्त गुरु के प्रति प्रेम और आसक्ति के कारण भक्ति करता है। यह भक्ति प्रेम, श्रद्धा और समर्पण पर आधारित होती है। रागानुगा भक्ति में, भक्त अपने आराध्य के प्रति इतना आसक्त हो जाता है कि वह उसके बिना नहीं रह सकता।
रागात्मिका भक्ति:
यह भक्ति प्रेम और आसक्ति की चरम अवस्था है। इस भक्ति में, भक्त पूरी तरह से अपने आराध्य में लीन हो जाता है और उसके अलावा कुछ नहीं चाहता। रागात्मिका भक्ति में, भक्त अपने और अपने आराध्य के बीच कोई अंतर नहीं देखता। यह भक्ति आध्यात्मिक मुक्ति का सर्वोच्च स्तर माना जाता है। इस भक्ति में भक्त अपने को कष्ट देकर अपने आराध्य को खुश देखना चाहता है और इस तरह के भक्ति में भक्त अनन्य भाव की भक्ति में लीन रहते हैं।
परम पुरुष कहते हैं मैं भक्तों के साथ रहता हूं जहां वह मेरा कीर्तन करते हैं भक्तों का हृदय ही हमारा दिव्य राजधानी हो जाता है।