उरांव समाज ने निभाई पारंपरिक वनभुजनी पूजा की अनूठी परंपरा, बच्चों ने निभाई ‘हंडी फोड़’ की रात्री यात्रा* *बान टोला और मेरी टोला में सामूहिक सहभागिता के साथ संपन्न हुई पूजा, सुख-समृद्धि की हुई कामना*

न्यूज़ लहर संवाददाता
झारखंड: पश्चिमी सिंहभूम जिले के चाईबासा स्थित बान टोला और मेरी टोला में बुधवार को उरांव समाज द्वारा हर वर्ष की भांति इस वर्ष भी वैशाख शुक्ल पक्ष की शुभ बेला में पारंपरिक वनभुजनी पूजा अत्यंत श्रद्धा एवं उल्लास के साथ सम्पन्न हुई। इस विशेष पूजा में समाज के लोगों ने न केवल सामूहिक सहभागिता दिखाई, बल्कि अपनी पुरातन संस्कृति और परंपराओं को भी जीवंत रूप में प्रस्तुत किया।
*सरना स्थल में हुआ विधिवत पूजन*
पूजन का आयोजन टोला के सरना स्थल (चाला मंडप) में समाज के पाहन (पुजारी) फागु खलखो, पनभरवा मंगरू टोप्पो, दुर्गा कुजूर, एवं सहयोगियों संजय कुजूर, सुखदेव मिंज और सुनील बरहा द्वारा संपन्न किया गया। रात्रि में अखाड़ा में पाहन और पनभरवा द्वारा टोला-मोहल्ले की सुख-समृद्धि के लिए विशेष रात्रिकालीन पूजा आयोजित की गई।
*रात्रि में निर्वस्त्र बच्चों की ‘हंडी फोड़’ परंपरा रही आकर्षण का केंद्र*
परंपरा अनुसार रात्रि में टोला के छोटे-छोटे बच्चे निर्वस्त्र होकर, हाथों में डंडा लिए टोले के प्रत्येक घर के बाहर भ्रमण करते हैं, जहां लोग आंगन में एक हंडी (मिट्टी का घड़ा) रखते हैं। बच्चे इन्हें फोड़ते हुए पूरे टोले का चक्कर लगाते हैं। इसके पश्चात सभी बच्चे श्मशान काली मंदिर के पास स्थित पेड़ के नीचे एकत्र होकर नियमपूर्वक पूजा करते हैं और फिर पास की नदी में स्नान कर वस्त्र धारण करते हुए लौटते हैं।
समाज की मान्यता है कि जिस घर के बाहर हंडी नहीं रखी जाती, उस घर से दुख-दर्द दूर नहीं होता। इसलिए पूरे टोले में यह पूजा पूरी आस्था और संकल्प के साथ की जाती है।
*अगले दिन महिलाएं करती हैं समापन की विधि*
अगले दिन सुबह समाज की महिलाएं, पाहन की धर्मपत्नी के नेतृत्व में, रात में फोड़ी गई हंडियों को उठाकर श्मशान काली मंदिर के समीप एकांत स्थान या मुहल्ले की सीमा से बाहर ले जाकर प्राकृतिक रूप से विसर्जित करती हैं, फिर स्नान कर अपने-अपने घर लौटती हैं। इसी के साथ यह पूजा विधिवत रूप से संपन्न मानी जाती है।
*समाज के वरिष्ठ जनों की गरिमामयी उपस्थिति*
इस अवसर पर समाज के मुखिया लालू कुजूर, राजेन्द्र कच्छप, शंभू टोप्पो, चमरू लकड़ा, सीताराम मुंडा, जगरनाथ टोप्पो, हुरिया बरहा, दिलीप कच्छप, देवानंद लकड़ा, बिट्टू कच्छप, कर्मा कुजूर, बिष्णु तिर्की, कुंजल कच्छप, पटेल टूटी, छोटे लकड़ा, सुकरा कच्छप, सुनील खलखो, नवीन कच्छप, सुजल तिर्की, कलिया कुजूर, भोला कुजूर समेत समाज के सैकड़ों लोग उपस्थित रहे।
*परंपरा, आस्था और एकता का अद्भुत संगम*
वनभुजनी पूजा न केवल उरांव समाज की परंपरा और धार्मिक आस्था का प्रतीक है, बल्कि यह सामाजिक एकजुटता, सामूहिक सहयोग और सांस्कृतिक धरोहरों के संरक्षण का भी संदेश देती है। वर्तमान समय में जब पारंपरिक रीति-रिवाज विलुप्ति की ओर बढ़ रहे हैं, ऐसे आयोजनों का अस्तित्व में बने रहना प्रेरणादायक है।