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सिनगीदाई और कैलीदाई की शौर्यगाथा से प्रेरित, उरांव समाज ने पारंपरिक जेष्ठ जतरा पर्व हर्षोल्लास से मनाया* 

 

न्यूज़ लहर संवाददाता

चाईबासा: आदिवासी उरांव समाज द्वारा अपनी वीरांगनाओं की स्मृति और शौर्यगाथा को जीवित रखने के उद्देश्य से मनाया जाने वाला पारंपरिक जेष्ठ जतरा महापर्व इस वर्ष भी 12 और 13 मई को पूरे हर्षोल्लास एवं रीति-रिवाज के साथ मनाया गया। यह पर्व न केवल सांस्कृतिक उत्सव है, बल्कि रोहतासगढ़ के स्वतंत्र आदिवासी राजशासन की गौरवगाथा और मुगलों पर प्राप्त ऐतिहासिक विजय की अमिट याद दिलाता है।

 

इतिहास की बात करें तो, प्राचीनकाल में रोहतासगढ़ में उरांवों का स्वतंत्र राजशासन था, जहां राजा उरगन ठाकुर का शासन हुआ करता था। यह समृद्ध राज्य बार-बार बाहरी आक्रमणों का शिकार बना। एक सरहुल पर्व के दिन, जब लोग उत्सव में मग्न थे, तब मुगलों ने अचानक आक्रमण कर दिया। परंतु इस युद्ध में राजा की पुत्री सिनगीदाई और सेनापति की पुत्री कैलीदाई के नेतृत्व में हजारों महिलाओं ने पुरुषों का वेश धारण कर शत्रु से मोर्चा लिया और उन्हें पराजित कर दिया।

 

महिलाओं द्वारा पुरुषों का वेश धारण करना एक रणनीतिक निर्णय था—जिसका उद्देश्य था शत्रु को भ्रमित करना और अपनी अस्मिता की रक्षा करते हुए युद्ध में वीरता दिखाना। यही कारण है कि तीन बार मुगलों के आक्रमणों को विफल कर उरांव समाज ने विजय प्राप्त की। इस वीरता की स्मृति में तीन सफेद लकीरों वाला नीला झंडा आज भी जतरा महापर्व का मुख्य प्रतीक है।

 

वैशाख पूर्णिमा के पश्चात पहले ज्येष्ठ माह में मनाया जाने वाला यह पर्व, उरांव समाज की अस्मिता, साहस और संस्कृति का प्रतीक है। 12 मई को सभी सातों अखाड़ों की युवतियों द्वारा खेत-खलिहानों से मिट्टी लाकर अखाड़ों को सजाया गया और रात भर पारंपरिक गीत-संगीत व नृत्य के साथ जागरण हुआ।

 

13 मई को सुबह 12 बजे से पूर्व अखाड़ा में विधिपूर्वक पूजा-अर्चना की गई, जिसमें बान टोला के पाहन फागु खलखो, सहयोगी दुर्गा कुजूर एवं मंगरू टोप्पो द्वारा परंपरागत रीति से पूजा संपन्न कराई गई। इस अवसर पर समाज के प्रमुख जनों में मुखिया लालू कुजूर, राजेन्द्र कच्छप, शंभू टोप्पो, सीताराम मुंडा, चमरू लकड़ा, रवि तिर्की, बिरसा लकड़ा, लखन टोप्पो, बुधराम कोया, मथुरा कोया, कर्मा कुजूर, बंधन कुजूर, जगरनाथ टोप्पो, सूरज टोप्पो, अविनाश कुजूर, आकाश टोप्पो एवं सावन लकड़ा सहित बड़ी संख्या में समाजजन उपस्थित रहे।

 

यह पर्व न केवल इतिहास की वीरता को दोहराता है, बल्कि नई पीढ़ी को अपनी संस्कृति, परंपरा और मातृभूमि के लिए बलिदान की भावना से जोड़ने का भी कार्य करता है।

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