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गुरु पूर्णिमा : अज्ञान के अंधकार से ज्ञान के प्रकाश तक पहुंचाने वाले गुरु को कोटि-कोटि नमन

न्यूज़ लहर संवाददाता
जमशेदपुर।गुरु पूर्णिमा के दिन हम न केवल अपने शिक्षक, पथप्रदर्शक और मार्गदर्शक को प्रणाम करते हैं, बल्कि अपने जीवन की उस दिव्य ऊर्जा को भी धन्यवाद देते हैं, जिसने हमें अज्ञानता के अंधकार से निकाल कर ज्ञान के उजाले की ओर चलना सिखाया।

संत कबीरदास कहते हैं –

गुरु गोविंद दोऊ खड़े, का के लागूं पाय,
बलिहारी गुरु आपणे, गोविंद दियो मिलाय।

यह सिर्फ एक दोहा नहीं, बल्कि उस सच्चाई का भावपूर्ण वर्णन है, जो हर सच्चे शिष्य ने कभी न कभी महसूस किया होता है। गुरु वह होता है जो केवल शास्त्र नहीं पढ़ाता, बल्कि आत्मा को जगाता है, जीवन के सही मायनों से रूबरू कराता है। वह कठोर हो सकता है, पर उसका प्रत्येक शब्द, प्रत्येक अनुशासन शिष्य के उज्ज्वल भविष्य का बीज बनता है।

क्या विवेकानंद को कोई जानता यदि वे रामकृष्ण परमहंस के चरणों में न झुके होते?
क्या चंद्रगुप्त मौर्य सिंहासन पर बैठ पाते यदि चाणक्य उनका मार्गदर्शन न करते?
डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम को भी उनके स्कूल शिक्षक ने ही अंतरिक्ष के बारे में बताया था, जिसने उनकी सोच को आसमान की ऊंचाई तक पहुँचा दिया।

स्वामी विवेकानंद जब आध्यात्मिक भ्रम में थे, तो एक ही प्रश्न से उनके जीवन की दिशा बदल गई – “क्या तुमने अपने ईश्वर को देखा है?” और रामकृष्ण परमहंस ने कहा, “हाँ, मैंने देखा है।” वही उत्तर उन्हें उनका गुरु बना गया और विवेकानंद को भारत और विश्व के लिए प्रेरणा का स्रोत।

संस्कृत में ‘गु’ का अर्थ है अंधकार और ‘रु’ का अर्थ है उसे नष्ट करने वाला। गुरु वही है जो अज्ञानता, मोह, अहंकार जैसे तम को मिटाकर हमें आत्मज्ञान के प्रकाश से भर देता है।

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः।।

गुरु केवल शब्द नहीं बोलते — वे अपनी ऊर्जा, अपने संकल्प और अपने अनुभव से शिष्य की आत्मा को नया आकार देते हैं। तुलसीदास जी कहते हैं –

*गुरु बिनु भवनिधि तरइ न कोई।
जों बिरंचि संकर सम होई।।

अर्थात्, चाहे कोई ब्रह्मा, विष्णु, शिव जैसा क्यों न हो, गुरु के बिना वह जीवन सागर पार नहीं कर सकता।

संत कबीर ने गुरु को कुम्हार बताया है –

गुरु कुम्हार शिष कुम्भ है, गढ़ि गढ़ि काढ़ै खोट।
अंतर हाथ सहार दे, बाहर बाहै चोट।।

जिस तरह एक कुम्हार घड़े को भीतर से सहारा देता है और बाहर से चोट मारकर आकार देता है, ठीक वैसे ही गुरु अपने शिष्य को सजाता-संवारता है।

भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा:

सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।

यह केवल कृष्ण का संदेश नहीं, बल्कि हर सद्गुरु की वाणी है – मुझमें समर्पित हो जाओ, मैं तुम्हारे समस्त पाप हर लूंगा।

गुरु पूर्णिमा के पावन पर्व पर समस्त गुरुजनों को कोटि-कोटि नमन।
श्रीगुरु चरणों में श्रद्धा सहित वंदन।

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