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अच्छी फसल की कामना का पर्व है हेरो, आदिवासी बड़े श्रद्धा से मनाते हैं

न्यूज़ लहर संवाददाता
झारखंड : पश्चिमी सिंहभूम जिले के आदिवासी हो बहुल गांवों में इन दिनों कृषि से जुड़े त्योहार “हेरो पर्व” की धूम मची हुई है। यह एकदिनी पर्व हो समुदाय के सबसे बड़े और भक्तिभाव से मनाये जानेवाले पर्वों में से एक है। सामान्यत: इसे बरसात में कृषि कार्य के समय मनाने की परंपरा है। सदियों से हो समुदाय में प्रचलित हेरो पर्व अच्छी बारिश व अच्छी फसल की कामना का त्योहार है। आदिवासी ‘हो’ समुदाय के हेरो पर्व में इष्ट देवी-देवता देशाऊली, नागे इरा तथा बींदी एरा की पूजा की मुख्य परंपरा है। इस दौरान पूजा विधि तथा उपवास के सख्त नियमों का पालन करना होता है। हेरो पर्व की यह पूजा गांव के बाहर खेतों के आसपास होती है। सर्वप्रथम पूजा स्थल का शुद्धिकरण होता है। फिर चावल की पूंजी समेत अन्य पूजन सामग्रियों की स्थापना करके देशाऊली, नागे एरा तथा बींदी एरा की पूजा होती है। इस दौरान पुजारी का मुख देशाऊली की तरफ होना चाहिये।
पूजा के दौरान बोदा (बकरा) की बलि दी जाती है और अच्छी फसल (धान) व बारिश की कामना की जाती है। मान्यता है कि ऐसा करने से न केवल बारिश बल्कि फसल भी अच्छी होती है।
पूजा के बाद बोदा (बकरा) मांस को पकाकर उसे प्रसाद के रूप में पूजा स्थल में मौजूद व्यक्तियों में बांटा दिया जाता है। फिर इसे पूजे गये भात के साथ ग्रहण किया जाता है। खास बात ये है कि इस पूरे आयोजन में महिलाओं की भागीदारी पर पारंपरिक प्रतिबंध रहता है। इसलिये पूजा में वे शामिल नहीं होती हैं। उनके पूजे गये बकरे के मांस के खाने पर भी सामाजिक निषेध है। मान्यता है कि इस निषेध के उल्लंघन हो जाने से गांव में विपत्ति आ सकती है। इसलिये आज भी हेरो पर्व में इस निषेधात्मक परंपरा का सख्ती से पालन होता है। यहां पूजा की समाप्ति के बाद घरों में भी मान्यता के अनुसार पूजा करके सुख समृद्धि की कामना की जाती है। घर में पूजा के बाद कृषि कार्य में मदद करनेवाले बैलों को इसके लिये श्रद्धापूर्वक प्रसाद (भोजन) परोसा जाता है। बैल इसे खाते हैं। किसान इसके जरिये बैलों के प्रति आभार जताते हैं और आगे भी अन्न उपजाने में ऐसे ही उससे मदद मिलते रहने की कामना की जाती है। पूजे गये भोजन को परोसने के लिये नये सूप का उपयोग किया जाता है। समस्त पूजा के बाद सामूहिक नृत्य का दौर शुरू होता है। नगाड़े तथा मांदर की थाप नाचते-झूमते ग्रामीण अपने इष्ट देवों के प्रति श्रद्धा तथा आभार व्यक्त करते हैं और खुशियां मनाते हैं। इसके लिये गांव के सार्वजनिक सुसुन अकाड़ा (नृत्य स्थल) में सारे ग्रामीण अपने पारंपरिक वाद्ययंत्र के साथ इकट्ठे होते हैं और हेरो लोकगीतों के बीच सामूहिक नृत्य में भाग लेते हैं। महिलाएं हेरो गीत के जरिये प्रकृति के प्रति कृतज्ञता दर्शाती हैं और पुरूष बनम (देशी वायलिन), बांसुरी आदि बजाकर इसे कर्णप्रिय बनाते हैं। गीतों में प्रकृति के प्रति कृतज्ञता, प्रेम और समर्पण के भाव होते हैं और समस्त मानव जगत के कल्याण की प्रार्थना का भाव शामिल होता है।

*हेरो लड है इस त्योहार का प्रतीक*

हेरो पर्व में हेरो लड खाने- खिलाने का भी रिवाज है जो इस त्योहार का मौलिक रिवाज है। हेरो लड एक प्रकार का व्यंजन है, जो रोटी के आकार में चावल के आटे से बनती है। इसको बनाने के लिये नये पत्ते तथा नयी हांडी का उपयोग होता है। हेरो लड बनाते समय पवित्रता तथा शुद्धता का खयाल भी रखा जाता है। यह व्यंजन हेरो पर्व का प्रतीक भी माना जाता है। इसको बनाने के दौरान उपवास की भी परंपरा है। हेरो लड घर व बाहर के लोग सभी खा सकते हैं। पर्व के दौरान सारा गांव स्वजातीय मेहमानों से गुलजार रहता है।

*अच्छी फसल की कामना का पर्व है हेरो : डोबरो बुड़ीऊली*

हो साहित्यकार डोबरो बुड़ीऊली का कहना है कि हेरो पर्व सृष्टि और कृषि से संबंधित पर्व है। इसमें हम अच्छी फसल और अच्छी बारिश की कामना करते हैं। ये हमारी सदियों पुरानी परंपरा है। अपने इष्ट देवी देवताओं की पूजा कर सुख समृद्धि की कामना करते हैं। श्री बुड़ीऊली ने बताया कि हेरो शब्द में हेर और रोआ का भाव छुपा है। हेर माने बुआई और रोआ माने रोपाई। यानी जो बुआई और रोपाई के बीच होनेवाले इस त्योहार को हेरो पर्व कहा जाता है।

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